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ब्रह्मांड कब प्रारंभ हुआ और कब खत्म हो जाएगा?

‘सृष्टि के आदिकाल में न सत् था न असत्, न वायु था न आकाश, न मृत्यु थी और न अमरता, न रात थी न दिन, उस समय केवल वही एक था जो वायुरहित स्थिति में भी अपनी शक्ति से सांस ले रहा था। उसके अतिरिक्त कुछ नहीं था।’- ऋग्वेद (नासदीयसूक्त) 10-129
हिन्दू धर्म ग्रंथों का अध्ययन करने के बाद पता चलता है कि ब्रह्मांड एक नहीं कई हैं और कई तो खत्म हो गए हैं। यदि हम सभी ब्रह्मांड को मिलाकर इसे एक ही मानें तो यह अनादि और अनंत है। यह एक ओर से फैलता जा रहा है तो दूसरी ओर से सिकुड़ता जा रहा है।
मतलब यह कि एक ओर से प्रलय जारी है तो दूसरी ओर से सृजन भी जारी है। प्रलय का अर्थ होता है संसार का अपने मूल कारण प्रकृति में सर्वथा लीन हो जाना। प्रकृति का ब्रह्म में लय (लीन) हो जाना ही प्रलय है। यह संपूर्ण ब्रह्मांड ही प्रकृति कही गई है।

अरबों साल पहले ब्रह्मांड नहीं था, सिर्फ अंधकार था। ऐसा अंधकार जिसे अंधकार कहना उचित नहीं होगा क्योंकि अंधकार तो प्रकाश का विपरित होता है लेकिन यह कुछ अलग ही था। उस अंधकार में अचानक एक बिंदु की उत्पत्ति हुई। फिर वह बिंदु मचलने लगा। फिर उसके अंदर भयानक परिवर्तन आने लगे। इस बिंदु के अंदर ही होने लगे विस्फोट। इस तरह कई बिंदु और कई विस्फोट हुए और कई ब्रह्मांड बनते गए।
शिव पुराण मानता है कि नाद और बिंदु के मिलन से ब्रह्मांड की उत्पत्ति हुई। नाद अर्थात ध्वनि और बिंदु अर्थात शुद्ध प्रकाश। इसे अनाहत (जो किसी आहत या टकराहट से पैदा नहीं) की ध्वनि कहते हैं जो आज भी सतत जारी है इसी ध्वनि को हिंदुओं ने ॐ के रूप में व्यक्ति किया है। ब्रह्म प्रकाश स्वयं प्रकाशित है। परमेश्वर का प्रकाश। इसे ही शुद्ध प्रकाश कहते हैं।

संपूर्ण ब्रह्मांड और कुछ नहीं सिर्फ कंपन, ध्वनि और प्रकाश की उपस्थिति ही है। जहां जितनी ऊर्जा होगी वहां उतनी देर तक जीवन होगा। यह जो हमें सूर्य दिखाई दे रहा है एक दिन इसकी भी ऊर्जा खत्म हो जाने वाली है। धीरे धीरे सबकुछ विलिन हो जाने वाला है।
ब्रह्म, ब्रह्मांड और आत्मा- यह तीन तत्व ही हैं। ब्रह्म शब्द ब्रह् धातु से बना है, जिसका अर्थ ‘बढ़ना’ या ‘फूट पड़ना’ होता है। ब्रह्म वह है, जिसमें से सम्पूर्ण सृष्टि और आत्माओं की उत्पत्ति हुई है, या जिसमें से ये फूट पड़े हैं। विश्व की उत्पत्ति, स्थिति और विनाश का कारण ब्रह्म है।- उपनिषद

ब्रह्म स्वयं प्रकाश है। उसी से ब्रह्मांड प्रकाशित है। उस एक परम तत्व ब्रह्म में से ही आत्मा और ब्रह्मांड का प्रस्फुटन हुआ। ब्रह्म और आत्मा में सिर्फ इतना फर्क है कि ब्रह्म महाआकाश है तो आत्मा घटाकाश। घटाकाश अर्थात मटके का आकाश। ब्रह्मांड से बद्ध होकर आत्मा सीमित हो जाती है और इससे मुक्त होना ही मोक्ष है।
परमेश्वर (ब्रह्म) से आकाश अर्थात जो कारण रूप ‘द्रव्य’ सर्वत्र फैल रहा था उसको इकट्ठा करने से अवकाश उत्पन्न होता है। वास्तव में आकाश की उत्पत्ति नहीं होती, क्योंकि बिना अवकाश (खाली स्थान) के प्रकृति और परमाणु कहाँ ठहर सके और बिना अवकाश के आकाश कहाँ हो। अवकाश अर्थात जहाँ कुछ भी नहीं है और आकाश जहाँ सब कुछ है।

पदार्थ के संगठित रूप को जड़ कहते हैं और विघटित रूप परम अणु है, इस अंतिम अणु को ही वेद परम तत्व कहते हैं जिसे ब्रह्माणु भी कहा जाता है और श्रमण धर्म के लोग इसे पुद्‍गल कहते हैं। भस्म और पत्थर को समझें। भस्मीभूत हो जाना अर्थात पुन: अणु वाला हो जाना।
आकाश के पश्चात वायु, वायु के पश्चात अग्न‍ि, अग्नि के पश्चात जल, जल के पश्चात पृथ्वी, पृथ्वी से औषधि, औ‍षधियों से अन्न, अन्न से वीर्य, वीर्य से पुरुष अर्थात शरीर उत्पन्न होता है।- तैत्तिरीय उपनिषद

इस ब्रह्म (परमेश्वर) की दो प्रकृतियाँ हैं पहली ‘अपरा’ और दूसरी ‘परा’। अपरा को ब्रह्मांड कहा गया और परा को चेतन रूप आत्मा। उस एक ब्रह्म ने ही स्वयं को दो भागों में विभक्त कर दिया, किंतु फिर भी वह अकेला बचा रहा। पूर्ण से पूर्ण निकालने पर पूर्ण ही शेष रह जाता है, इसलिए ब्रह्म सर्वत्र माना जाता है और सर्वत्र से अलग भी उसकी सत्ता है।
जिस तरह मनुष्य की उम्र निर्धारित है, जिस तरह धरती की उम्र निर्धारित है और जिस तरह सूर्य की उम्र निर्धारित है उसी तरह इस संपूर्ण ब्रह्मांड की उम्र निर्धारित है, लेकिन जिस तरह बुढ़े लोग मर जाते हैं और बच्चे, किशोर और जवान लोग जिंदा रहते हैं उसी तरह बुढ़ा ब्राह्मांड मर जाएगा और नया ब्रह्मांड जिंदा रहेगा। इसीलिए इसे अनादि और अनंत कहते हैं। मतलब जिसका न कोई प्रारंभ है और न कोई अंत। जिस हम अंत समझते हैं वह एक नया प्रारंभ है।

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