अमेठी। राहुल गांधी लोकसभा चुनाव में हार के बाद पहली बार आज अमेठी पहुंच रहे हैं. अपनी यात्रा में वह पार्टी कार्यकर्ताओं से मिलेंगे और उनका हाल जानेंगे. संभवतः चुनाव नतीजों की भी समीक्षा करेंगे. लेकिन इससे इतर बताया जा रहा है कि राहुल गांधी अपने इस दौरे को मीडिया से दूर रखेंगे, इसका मतलब है कि वह इस यात्रा को बिल्कुल कैमरे की नजर से दूर रखना चाहते हैं।
असल में, राहुल गांधी की इस यात्रा का संदेश यह है कि भले ही वह अमेठी से चुनाव हार गए हैं, लेकिन उनका आत्मीय रिश्ता अमेठी से बना हुआ है. यह उनकी कर्मभूमि है, जो उन्हें विरासत में मिली है, और इसे वह संभाल कर रखना चाहेंगे. अमेठी ऐसी संसदीय सीट रही है जिसका कांग्रेस और खासकर गांधी परिवार से गहरा रिश्ता रहा है।
अमेठी सीट 1967 में अस्तित्व में आई थी और उस दौरान हुए लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के विद्याधर वाजपेयी संसद पहुंचे थे. इस सीट का संसदीय इतिहास बताता है कि अब तक यहां से ज्यादातर समय कांग्रेस जीतती रही है. बहुत कम मौके आए जब कांग्रेस के हाथ से यह सीट फिसली हो।
1977 में जनता पार्टी के रविंद्र प्रताप सिंह इस सीट से जीत थे
आपातकाल के बाद 1977 में जनता पार्टी के रविंद्र प्रताप सिंह इस सीट से जीत थे जबकि 1980 में जब दोबारा चुनाव हुए तो संजय गांधी जीत हासिल करने में कामयाब रहे थे. 1998 में यह सीट फिर बीजेपी के झोली में चली गई और संजय सिंह चुनाव जीते. इस तरह इक्का-दुक्का मौकों को छोड़ दिया जाए तो इस सीट पर अमूमन कांग्रेस और गांधी परिवार का ही कब्जा रहा है।
संजय गांधी, फिर राजीव गांधी के बाद दो बार कांग्रेस के ही सतीश शर्मा इस सीट से जीते. 1999 में हुए चुनाव में सोनिया गांधी मैदान में उतरीं और संसद पहुंचीं. इसके बाद 2004 से राहुल गांधी अमेठी से लगातार संसद पहुंचते रहे. लेकिन इस बार फिर कांग्रेस चूक गई और 1998 के बाद अमेठी सीट बीजेपी के खाते में चली गई और स्मृति ईरानी जीत हासिल करने में कामयाब रहीं।
बहरहाल, राहुल गांधी अपनी इस यात्रा से यही संदेश देना चाहते हैं कि उनका रिश्ता नाता अमेठी से बना रहेगा. न कांग्रेस पार्टी और न ही राहुल गांधी अमेठी को कभी छोड़ना नहीं चाहेंगे. अमेठी लोकसभा क्षेत्र कांग्रेस का गढ़ रहा है और यहां से मिली हार केवल राहुल गांधी के लिए नहीं बल्कि पूरी पार्टी के लिए बड़ा झटका है. इसे राहुल गांधी से बेहतर कौन समझ सकता है?