हृदय रोग ही नहीं कैंसर-मधुमेह जैसे रोगों का दुश्मन है काला गेहूं

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हैल्थ डैस्क

कैंसर, मधुमेह, हृदयरोग की रोकथाम में मददगार और पौष्टिकता से भरपूर काले गेहूं की फसल से अगले दो-तीन सालों में यूपी के खेत भी लहलहाते दिखेंगे। अगले रबी सीजन में कृषि जलवायु क्षेत्रों के अनुसार प्रदेश के सात जिलों में प्रयोग के तौर पर काले गेहूं की खेती शुरू की जाएगी। अगर सब कुछ ठीक रहा और दावे के अनुरूप परिणाम मिले तो इसे प्रदेश भर में उगाने की तैयारी है।

ट्रायल के रूप में इसे पंजाब के खेतों में पिछले तीन सालों से लगातार उगाया जा रहा है। बीते रबी सीजन में पंजाब में ही इसका 850 क्विंटल उ‌त्पादन किया गया है। शुरुआत में यूपी के सात जिलों में खेती शुरू करने का निर्णय किया गया है। ये जिले हैं सहारनपुर, बागपत, ज्योतिबा फूले नगर, मथुरा, हरदोई, सुलतानपुर एवं कौशाम्बी। जानकार बता रहे हैं कि केन्द्रीय कृषि मंत्रालय से शीघ्र ही सीड एक्ट में नोटिफिकेशन और गजट जारी होने जा रहा है। इसके बाद यूपी में भी इसकी कमर्शियल खेती शुरू की जाएगी।

यह काले, नीले एवं जामुनी रंग का गेहूं है, जो सामान्य गेहूं से कहीं अधिक पौष्टिक है। एनएबीआई के विशेषज्ञों का दावा है कि ब्लैक व्हीट (काला गेहूं) में एंटी आक्सीडेंट काफी मात्रा में है जो  तनाव, मोटापा, कैंसर, मधुमेह और दिल से जुड़ी बीमारियों के रोकथाम में मददगार है।

सामान्य गेहूं में जहां एंथोसाइनिन की मात्रा 5 से 15 पास प्रति मिलियन होती है, वहीं काले गेहूं में यह मात्रा 40 से 140 पास प्रति मिलियन होती है। एंथोसाइनिन ब्लू बेरी जैसे फलों की तरह लाभदायक है, यह शरीर से फ्री-रेडिकल्स निकालकर हृदय रोग, कैंसर, मधुमेह, मोटापा सहित कई बीमारियों की रोकथाम करता है। इसमें जिंक की मात्रा भी सामान्य गेहूं से कई गुना अधिक होती है।  हालांकि इसकी पैदावार काफी कम है। सामान्य गेहूं जहां 70 कुंतल प्रति हेक्टेयर पैदा हो रहा है, वहीं काले गेहूं की पैदावार मात्र 40 कुंतल प्रति हेक्टेयर ही है।

चण्डीगढ़ के मोहाली स्थित नेशनल एग्री फूड बायोटेक्नालॉजी इंस्टीट्यूट  (एनएबीआई) के सात सालों के शोध के बाद काले गेहूं का पेटेंट कराया गया है। एनएबीआई ने इस गेहूं का नाम ‘नाबी एमजी’ दिया है।  चण्डीगढ़ के मोहाली स्थित नेशनल एग्री फूड बायोटेक्नालॉजी इंस्टीट्यूट  (एनएबीआई) की वैज्ञानिक डॉ. मोनिका गर्ग के नेतृत्व में वर्ष 2010 में काले गेहूं पर शोध शुरू किया गया था और सात सालों में संस्थान ने इसका पेटेंट करा लिया।

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