आधुनिकता की दौड़ में भी विलुप्त हो गई कामाक्षा की चार बावड़ियां

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(नीरज मंगला/पीयूष शर्मा) करसोग:-

हिमाचल प्रदेश की करसोग तहसील मुख्यालय से दक्षिण में 6 किलोमीटर की दूरी पर स्थित एक प्राचीन गांव है काओ।काओ प्राचीन संस्कृतियों और इतिहास के अनेक अध्यायों का संगम स्थल रहा है। काओ गांव को त्रेता और द्वापर युग के इतिहास के पन्नों में अंकित होने का मान सम्मान प्राप्त है।काओ त्रेता युग में जहां भगवान परशुराम जी की तपस्थली रहा वही द्वापर युग में पांडव कुंती और द्रोपती के साथ वनवास का समय पूरा करने के लिए काओ की इस पावन धरा पर भी पधारे थे तथा पांडवों ने कामाक्षा माता के मंदिर का जीर्णोद्धार किया था।

काओ का लोक जीवन कभी धर्म की परिधि के चारों ओर घूमता था।मघैरधार के आंचल में बसे काओ की हाजड़ा की चार बावडियों में कभी एक साथ चार जलधाराएं निकलती थी।इन बावड़ियों के प्रति काओ वासियों की बहुत गहरी धार्मिक आस्था रही है।हाजड़ा की इन्हीँ बावड़ियों में से एक माता की बावड़ी का जल मां कामाक्षा की पूजा-अर्चना में प्रयोग किया जाता था।शेष तीन बावड़ियों का जल गांव वासी पेयजल के रुप में प्रयोग करते थे।सुतक और पातक में इन बावड़ियों पर जाना वर्जित था।मानव की छेड़छाड़ के कारण आज इन चारों बावड़ियों का जल सूख गया है तथा बावड़ियों से कुछ दूरी पर एक बड़े स्त्रोत के रुप में प्रकट हुआ है।घर-घर नलों के माध्यम से जल पहुंचाने के साथ विकास के नाम पर हर स्थान पर पारंपरिक जल स्त्रोतों की जो बलि दी गई है उसकी क्षति अपूरणीय है। सांस्कृतिक संक्रमण के ऐसे दौर में प्रकृति की अनेक अमूल्य निधियाँ खत्म होती जा रही हैं।

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