बालीवुड डैस्क
बहुत कम फिल्में ऐसी होती हैं, जिसमें कोई खलनायक नहीं होता, जो पहले दृश्य से ही सकारात्मक तरंगें छोड़ना प्रारम्भ कर देती हैं और अंत में जब आप थियेटर से निकलते हैं, तो प्रेरणा से भरे होते हैं। कंगना की मुख्य भूमिका वाली ‘पंगा’ ऐसी ही फिल्म है। यह केवल एक कबड्डी खिलाड़ी के कमबैक की कहानी नहीं है, बल्कि जीवन में उम्मीदों के कमबैक की भी कहानी है।
जया निगम(कंगना) भारतीय महिला कबड्डी टीम की कप्तान रह चुकी है। वह अपने समय की सर्वश्रेष्ठ रेडर थी। उसकी शादी प्रशांत (जस्सी गिल) से हो जाती है। शादी के बाद वह कबड्डी खेलना जारी रखती है। उसे डेढ़-दो साल बाद एशिया कप में टीम का नेतृत्व करना है। तभी वह प्रेग्नेंट हो जाती है। उसकी योजना है कि बच्चे को जन्म देने के बाद वह फील्ड में लौट आएगी, लेकिन उसका बेटा आदित्य (यज्ञ भसीन) जन्म के समय बहुत कमजोर होता है। उसका इम्यून सिस्टम बहुत कमजोर है, इसलिए उसे खास देखभाल की जरूरत है। जया अपने सपने को तिलांजलि देकर उसकी परवरिश में जुट जाती है। वह भोपाल में रेलवे की नौकरी के साथ घर-गृहस्थी में ही खो जाती है। लोग उसको भूल जाते हैं। इस बात की तकलीफ उसे है, लेकिन अपने पति और बेटे की खातिर वह कोई शिकायत नहीं करती। वह अब भी इस खेल से जुड़ी है। एक दिन जया का बेटा उससे बहुत नाराज हो जाता है, क्योंकि जया उसके स्पोट्र्स डे पर नहीं पहुंच पाई थी। फिर उसे अपने पापा से पता चलता है कि उसकी खातिर ही मम्मी ने अपने सबसे प्यारी चीज कबड्डी को छोड़ दिया था, तो वह अपनी मां के कमबैक की मुहिम में जुट जाता है अपने पापा के साथ। इसी दौरान, जया के साथ कबड्डी खेल चुकी मीनू (ऋचा चड्ढा) का ट्रांसफर भोपाल हो जाता है। कमबैक में वह जया की भरपूर मदद करती है…
फिल्म का प्लॉट बहुत साधारण है, जिसे पहले भी हम ढेरों फिल्मों में देख चुके हैं। लेकिन इस कहानी को अश्विनी अय्यर ने खूबसूरती और थोड़े अलग ढंग से पेश किया है। फिल्म की स्क्रिप्ट अच्छी है और संवाद असरदार। ‘नील बटे सन्नाटा’, ‘बरेली की बर्फी’ के बाद एक बार फिर अश्विनी ने अच्छी फिल्म दी है, बल्कि दोनों से बेहतर फिल्म दी है। इसमें उन्होंने यथार्थ को बहुत सहज और प्रभावी तरीके से पेश किया है। उन्होंने स्त्रीवाद का झंडा बुलंद किए बगैर महिलाओं के सशक्तीकरण की वकालत ज्यादा जोरदार तरीके से की है। उन्होंने बिना किसी को कोसे अपनी बात कहने पर फोकस किया है, इसीलिए ज्यादा असरदार रही हैं। उन्होंने इस फिल्म के जरिये देश में महिला कबड्डी और कबड्डी खिलाड़ियों की व्यथा को भी पेश किया है। कुछ अपवादों को छोड़ दें, तो इस फिल्म में प्राय: सारी चीजें जरूरत के हिसाब से अपनी सही जगह पर हैं। जहां इमोशन की जरूरत है, वहां इमोशन है। जहां हल्के-फुल्के दृश्यों की जरूरत है, वे वहां हैं। जहां दुख की जरूरत है, वहां दुख है। जहां आक्रोश की जरूरत है, वहां आक्रोश है। कुछ भी ठूंसा हुआ नहीं है। किरदारों को बहुत सलीके से गढ़ा गया है। कबड्डी के दृश्यों पर मेहनत की गई है, वे स्वाभाविक लगते हैं। फिल्म का पहला हाफ शानदार है। दूसरा हाफ थोड़ा सुस्त है। जया की ट्रेनिंग का दृश्य कुछ लंबा खिंच गया है। फिल्म की लंबाई थोड़ी कम होती, तो बेहतर होता। भारत की कप्तान के रूप में जया का जो अतीत है, वह बढ़िया से स्थापित नहीं हो पाया है। लेकिन दूसरे हाफ की कुछ कमियों को फिल्म का क्लाइमैक्स संभाल लेता है।
जया निगम की भूमिका में कंगना अद्भुत हैं। यह अब तक उनका सर्वश्रेष्ठ अभिनय है। एक मां के रूप में, एक स्त्री के रूप में, एक पत्नी के रूप में, एक भुला दी गई खिलाड़ी के रूप में और अपने सपनों को फिर से जीने के लिए संघर्ष करने वाली इनसान के रूप में वह बेहतरीन लगी हैं। उनकी आंखों की बेबसी दर्शकों की आंखों को नम कर देती है। उनका जज्बा दर्शकों में जज्बा भर देता है। उनका गुस्सा दर्शकों को उद्वेलित कर देता है। कलाकार की सफलता यही है कि वह अपने रंग में दर्शकों को भी रंग दे। कंगना इसमें सुपर से ऊपर रही हैं। एक सहयोग देने वाले पति के रूप में जेसी गिल बहुत सहज और अच्छे लगे हैं। और आदि के रूप में बाल कलाकार यज्ञ भसीन ने तो कमाल का काम किया है। वह फिल्म में जान पैदा कर देते हैं। रिचा चड्ढा का काम भी बढ़िया है। नीना गुप्ता ने अपने छोटे-से किरदार में छाप छोड़ी है। कबड्डी खिलाड़ी निशा दास के रूप में मेघा बर्मन अच्छी लगी हैं। कबड्डी टीम की कप्तान के रूप में स्मिता ताम्बे प्रभावित करती हैं। भारतीय टीम के कोच के रूप में राजेश तैलंग का अभिनय भी बहुत अच्छा है। इस फिल्म की पूरी कास्ट ही बहुत अच्छी है। सबने अपने हिस्से का काम बहुत बढ़िया किया है।
इस फिल्म की सबसे बड़ी खासियत यह है कि आपको पता है कि आगे क्या होने वाला है, फिर भी आप अगला दृश्य देखने के लिए उत्सुक रहते हैं। इस फिल्म की सरलता ही इसकी ताकत है। यह फिल्म बार-बार भावुक और प्रेरित करती है। यह न सिर्फ महिलाओं को प्रेरित करती है, बल्कि पुरुषों को भी प्रेरित करती है कि वे अपनी पत्नियों, मांओं, बेटियों, बहनों के सपनों को पूरा करने में सहयोग दें। उसके साथ सहयोग करते हुए अपने हिस्से का फर्ज निभाएं। यह फिल्म प्रेमचंद के कथा संसार की अनुभूति कराती है, जिसमें सिर्फ कुरूप यथार्थ ही नहीं है, बल्कि उस यथार्थ को बदलने का आदर्श समाधान भी है। यह एक जरूर देखने लायक फिल्म है।