पंजाब से गायब होती संस्कृति एक सांझी माता जो नवरात्रो में की जाती थी जो अपनी अलोप होने की स्थिति पर है
पंजाब, राजस्थान, उत्तर प्रदेश व महाराष्ट्र आदि प्रदेशों में कुछ हेरफेर के साथ वही रूप परिलक्षित होता है, जो संपूर्ण पितृपक्ष में नो दिन तक चलता है।
घर के बाहर दहलीज के ऊपर की दीवार पर या लकड़ी के साफ-स्वच्छ पटिए पर गोबर से पृष्ठभूमि लीपकर तैयार की जाती है, यह पृष्ठभूमि विशिष्ट आकार की होती है। माता की प्रतिमा बनाई जाती है
सूर्यास्त से पहले औरते एकजुट हो कर पूजा अर्चना करती है एवं सूर्यास्त के बाद आरती की तैयारी की जाती है। इन दिनों गोबर, फूल, पत्तियां, पूजन सामग्री प्रसाद इत्यादि के साथ-साथ माता के भजनो का गुणगान करती है
संजा की संपूर्ण कथा को जाने बगैर महज उसकी आकर्षक आकृतियों और मनभावन भजनो पर ही गुणगान करती है । कन्याओं के इस अनुष्ठानिक पर्व की परंपरा में संजा के ऐतिहासिक व्यक्तित्व और उसकी कारूणिक गाथा का आभास भी गुणगान करती है
सांजी, संजा, संइया और सांझी जैसे भिन्न-भिन्न प्रचलित नाम अपने शुद्ध रूप में संध्या शब्द के द्योतक हैं। पं. राजू बाबा जी का अनुमान है कि कहीं सांझी का ब्रह्मा की कन्या संध्या से किसी तरह का संबंध तो नहीं है?
कालकापुराण (विक्रम की दसवीं ग्यारहवीं शताब्दी) के अनुसार एक विपरीत किंवदंती उभरती है कि संध्या व ब्रह्मा के समागम से ही 40 भाव और 69 कलाएं उत्पन्न हुईं।